नई दिल्ली। करीब दो सौ साल पहले की बात है। 1839 में अंग्रेजों और महाराजा रणजीत सिंह की सेनाएं मिलकर बरकजई सेना पर टूट पड़ी थीं। तब अफगानिस्तान के शासक दोस्त मोहम्मद खान ने झुक जाना ही बेहतर समझा। पराजय के बाद दोस्त मोहम्मद खान को निर्वासन में भारत भेज दिया गया। खान उत्तराखंड आए और यहां की वादियों में खो से गए।
उन्हें शिकार का शौक था और मसूरी-देहरादून में जंगल और जानवरों की कोई कमी नहीं थी। यह जगह दोस्त मोहम्मद खान को जम गई। खान को यहां इतना अच्छा लगा कि वह छह साल से भी ज्यादा समय तक भारत में ही रहे। देहरादून और मसूरी में रहने वाले लोगों को शायद इसकी जानकारी नहीं हो, लेकिन देहरादून का काबुल पैलेस और मसूरी का बालाहिसार पैलेस इसके गवाह हैं।
20वीं सदी की शुरुआत में निर्वासित अफगानी शासकों के लिए बनाए गए इन महलों की बनावट उनके अपने महलों से मिलती-जुलती है। दोस्त मोहम्मद खान ने देहरादून में भी अच्छा-खासा वक्त गुजारा था। मसूरी के बालाहिसार वार्ड का नाम दोस्त मोहम्मद खान के एक महल के नाम पर है। आज उस महल में एक निजी स्कूल संचालित किया जाता है। 1843 में शाह सुजा की हत्या के बाद, दोस्त मोहम्मद खान ने मसूरी को छोड़ दिया था, क्योंकि उन्हें पुराना रुतबा वापस मिल गया था।
दोस्त मोहम्मद खान दो बार अफगानिस्तान के ‘अमीर’ रहे। पहली बार 1826 से 1839 के बीच और दूसरी बार 1843 से 1863 तक। मशहूर देहरादूनी बासमती वह अपने साथ लेकर आए थे जो आज घाटी की खासियतों में से एक है। इतिहास ने 40 साल बाद खुद को दोहराया। दोस्त मोहम्मद के पोते, याकूब मोहम्मद को 1879 में निर्वासित कर भारत भेजा गया। अपने दादा की तरह, याकूब ने भी दून घाटी को अपना घर बनाया। याकूब पहले अफगान थे जो देहरादून में बस गए। कभी काबुल पैलेस रहे मंगला देवी इंटर कॉलेज में याकूब ने कई साल गुजारे।
देहरादून के बारे में जानने वाले बताते हैं कि कर्णपुर का पुलिस थाना याकूब के शाही अंगरक्षकों का कमरा हुआ करता था। सर्वे चौक पर बने बिजली विभाग के दफ्तर में उस समय शाही नौकर-चाकर रहा करते थे। काबुल महल के आसपास का इलाका लीची के बागानों से घिरा हुआ था। जैसे-जैसे समय गुजरा, जगह पर स्थानीय लोग कब्जा करते चले गए। आज की तारीख में लीची का बाग बेहद छोटी जगह में सिमट गया है।