मदरलैंड संवाददाता, भैरोगंज
मानव दोहन और आधुनिकता की अंधी दौड़ ने घने जंगलों का सफाया कर दिया । इसका विपरीत असर पर्यावरण पर पड़ा है। साथ ही आदिवासी जनजीवन और उनके रहनसहन के अलावा संमुदाय के आजीविका पर भी पड़ता दिख रहा है ।
ग़ौरतलब है कि जब आसपास जंगल थे, तो संमुदाय के लड़कियों को जलावन के लिए लकड़ियाँ बिनने दूर नहीं जाना पड़ता था। वे जलावन की चिंता से मुक्त रहती थी। साथ ही जानवरों को चराने के लिए भी उन्हें दूर नहीं ले जाना पड़ता था। इस मुद्दे को बारीकी से देखें परखें तो आदिवासी समुदाय के घर-परिवार से जुड़े और भी बहुत सारे काम ऐसे हैं, जिसकी जिम्मेदारियों का बोझ लड़कियाँ एवं महिलाएँ उठाती हैं। जैसे छोटी-मोटी आय के लिए चटाई, झाड़ू और हाथ का पंखा, रस्सी आदि बनाने का काम भी महिलाओं के ज़िम्मे होता था । जिसके लिए उन्हें जंगलों से पत्ते लाने पड़ते थे । ऐसे में वनों के लगातार खात्मे से तथा सरकारी रोक से आदिवासी महिलाओं की कमाई भी काफी प्रभावित हुई है।
भैरोगंज थाना के आदिवासी गाँव मदरहनी की वयोवृद्ध जगरानी बताती हैं के कभी हमारा गाँव जंगल के बीच होता था । लेकिन बीच के लंबे अंतराल में आसपास के जंगल लुप्त हो गए ।आदिवासी समाज में एक तरह से भोजन उपलब्ध कराने का काम घर की महिलाओं पर ही है। इसलिए उससे संबंधित सारे काम उन्हें ही करने पड़ते हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि आदिवासी समाज कृषि आधारित समाज रहा है और यहाँ जल, जंगल, ज़मीन का उस समाज से अटूट संबंध रहा है। खाद्य पदार्थ जुटाने के दो प्रमुख स्रोत थे-ज़मीन और जंगल। जंगल से वे कटहल, आम, बेल, ताड़, खजूर, जामुन आदि कई तरह के फल कंद-मूल इकट्ठा किया करते थे और ये काम स्त्रियाँ ही किया करती थीं।हालांकि ऊपरोक्त हालात अब सरकारी प्रयासों और जागरूकता वश बदल रहे है ।फिर भी आधुनिक बदलाव का असर अभी भी अनुपातिक कम है । अतः वर्षों से इस स्थिति की मार पुरूष कम पर स्त्री जाति ज्यादा झेलती आई हैं। जंगल पातन से प्रकृति के साथ स्त्री जाति के विशिष्ट रिश्ते का उनकी जानकारी के भंडार पर भी असर पड़ा है । इसको हम इसतरह समझ सकते हैं कि जंगल और पेड़ों के साथ रोज़मर्रा के सम्पर्क के कारण स्त्री जाति ऐसे कई प्रकार की जड़ी-बुटियों के बारे में जानकारी प्राप्त करती थी या पहचानती थी जो कई तरह की बीमारियों का निदान कर सकती है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थी, अब इसके लिए उन्हें नीम-हकीम, झोला छाप डॉक्टरों या फिर बड़े डॉक्टरों से इलाज के लिए दूर चलकर शहर जाना पड़ता है। मुद्दे की गहराई में जाकर देखें तो इसके और भी कई पहलू हैं। पहले वन आधारित कई कुटिर उद्योग भी इस इलाके में चला करते थे जिसमें बड़े पैमाने पर लड़कियाँ शामिल रहती थीं। आज वे कुटीर उद्योग लुप्त हो रहे हैं। लुप्त होने वाले उद्योग में बेंत के बने सामान, रेताड़ अथवा पलवल की चटाई, तसर और सवई, घास आदि प्रमुख हैं। इन उद्योगों के बर्बाद होने से आदिवासी महिलाओं के सामने बरोज़गारी की समस्या भी खड़ी हो गई है।इस प्रकार के उपरोक्त हालात को देखते हुए प्रकृति से आदिवासी महिलाओं के विशेष रिश्ते को नकारना मुश्किल है ।
मदरहनी के साधु उरांव ,सुरेन्द्र उरांव आदि का कहना है । अब जब समाज के रहन सहन में बदलाव आ रहा है और जंगल सिमट गये तो बदले परिवेश में आय के स्रोत बेहद जरूरी हैं। इसके लिए बेरोजगार आदिवासी युवक दूर प्रदेशों में मजदूरी करने को विवश है। वहाँ जाकर टेम्पो ,रिक्शा चलाने से लेकर मकानों के निर्माण ईंट ,गारा भी ढोते हैं । आदिवासी गांव मदरहनी को सड़क संपर्क से जोड़ दिया जाय तो रोजगार के वैकल्पिक मार्ग खुल जाएंगे । हालांकि ग्रामीण बिजली, सड़क के लिये संघर्ष करते रहे है। काफी प्रयासों के बाद गांव में बिजली आ गई । पर सड़क निर्माण शेष है ।