मदरलैंड संवाददाता, भैरोगंज

​घर की माली हालत अच्छी नहीं थी। पिता मानसिक रुग्ण हैं ।माँ – बाप का बड़ा पुत्र था,तो घर की जिम्मेवारियां भी कंधे पर पहले थी। इसलिये भैरोगंज चौक पर स्थित एक छोटी सी गुमटी में पान बेचा करता था। इस रोजगार में बड़ी मुश्किल से परिवार की परवरिश होती थी ।साथ वाला छोटा भाई हर शाम बगल में अण्डे का आमलेट बेच कुछ सहयोग करता है। इस तरह घर की खर्च किसी तरह चलती है।
​अक्सर ये ख्याल आता कि इतनी कम आमदनी से छोटे भाइयों और बहनो के सर्वाइवल तथा आने वाले समय मे उनका घर बसाना आसान नहीं होगा । वैसे अभी वह खुद भी तो अविवाहित है ।
​काम से वक्त निकाल कर जब भी वो खाना खाने बैठता तो माँ भी पास बैठ कर उसे पंखा झलती रहती। इस क्रम में उसे कई बार पास बैठी माँ की आँखों में  बेबसी और निराशा के भाव साफ झलकते दिखाई पड़ गए थे ।पूछने पर वह एक लंबी स्वास छोड़ते हुए  “कुछ नहीं..बस, ऐसे हीं” कह के विषय को टाल देती  !पर दिलीप अपने माँ के मन मे चल रहे अंतर्द्वंदों को ताड़ जाता था । माँ की हालत और पूरे परिवार के माली हालत पर उसे अक्सर आत्मग्लानि महसूस होती रहती थी ।फिर एक दिन वह अपने परिवार के बोझ को कम करने परदेश निकल पड़ा। यह कहानी भैरोगंज के केवल एक व्यक्ति की नहीं है। इससे मिलती जुलती कहानियाँ स्थानीय अन्य उन सभी युवकों की है ,जो घर की जिम्मेवारियां हल्का करने घर से निकल पड़े थे। पर जयपुर के चाकसू में जाकर लॉकडाउन में फंस गए। बीते जनवरी फरवरी माह में ये सभी युवक अपने अभिभावकों का बोझ कम करने की नियत से गए थे। वहाँ पहुँचकर  विभिन्न साइडों पर ठेले से आइसक्रीम बेचने का धंधा करने लगे। इस धंधे में उनकी रोज की अच्छी दिहाड़ी भी बनने लगी । पर किस्मत को ये सब मंजुर नही था। एक एक करके कुछ पैसे इक्कठे किये थे। तभी 23 मार्च को लॉकडाउन लागू हो गया। डेरे में कुछ रशद पड़े थे और पास में कुछ पैसा भी था। लेकिन लॉकडाउन के बढ़ते चरण के दौरान सब कुछ खत्म हो रहा था। उस बेगानी शहर में बिना नौकरी पेशा के उनकी फिक्र कौन करता ?दिहाड़ी के भरोसे थे।बर्फ बेचने के रोजगार में माल और पैसों के लेन-देन तक ही मालिक और वेन्डर के रिश्ते का दस्तूर है। बेचे गए माल के कमीशन प्राप्ति के बाद दोनों के रास्ते अलग होते हैं। खैर कुछ दिन ऐसे ही बीतता रहा। लेकिन जब पास रखे गए रुपये पैसे चूकते गए, तो घर वापसी की चिंता सताने लगी।
​फिर तो, पास में बच गए शेष पैसों से कुछ खाने की बस्तुओं का इंतजाम किया। घर जाने के लिए स्थानिय लोगों की मिन्नतें कर उनकी पुरानी साइकिल खरीदी और एक लंबे और कठिन डगर को मापने निकल पड़े। सुनसान रास्तों पर कुछ खाने को भी नही मिल रहा था। यहाँ तक के कोरोना फैलने के डर से हैंडपम्प या नल वाले उसे छूने भी न दें..! हालांकि कुछ लोग ऐसे भी मिले जिनके पास दया और करूणा थी ।ऐसे लोगो ने सोशल डिस्टेंस की मर्यादा रखते हुए मदद की ।रास्ते मे पुलिस के डंडे भी कई जगह खाने पड़े। हालाकि चलते वक़्त उनके पास चाकसू का मेडिकल रिपोर्ट था। इसतरह समय आहिस्ता आहिस्ता गुजरता रहा और फिर करीब दस दिन के लंबे अंतराल के बाद बीते 14 मई को ये लोग भैरोगंज पहुँच गए। घर वालों को इनके आने की खबर मिली। फिर दोनों तरफ़ आँखे छलक आयीं। ​प्रतीक्षा में सुखी आँखें एकबारगी गीली हो गईं।लेकिन घर के लोगों के आलावा उपरोक्त लौटने वाले प्रवासियों ने अपनी जिम्मेदारी याद रखी। सोशल डिस्टेंस बनाए रखा ।घर मे भी कदम न रखा । आसपास अकेले दूरी बना कर समय काटते रहे। क्योकि यहाँ उनके मेडिकल चेकअप आदि कार्यों में विलंब हो रहा था। इसको लेकर मुखिया प्रतिनिधि तथा स्थानिय थानाध्यक्ष जयनारायण राम के आपसी समन्वय से प्रवासियों की लिस्ट बनाई गई है।
​नड्डा के मुखिया प्रतिनिधि ने दूरभाष पर बताया के भैरोगंज के केवल सात लोगों की लौटने की पुष्टि हुई है। बाकी शायद अन्य गांवों के लोग रहे होंगे। उन लोगों का कहना है कि रास्ते मे उनकी कई बार जाँच की गई थी। उनका कहना है की उन्हें  घर लौटे करीब एक सफ्ताह हो गए हैं। इस बीच वे परिवार या अन्य लोगों से दूरी बना समय गुजार चुके हैं। बाकी के एक सप्ताह वे फिर से सोशल दूरी बना कर रह लेंगे। हालाँकि वे इस बीच पुनः एक बार अपना मेडिकल चेक कराए जाने का आग्रह करते है। सम्भवतः रविवार को मेडिकल टीम भैरोगंज आएगी।तब उनकी जाँच कराई जाएगी।

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