ग्रेडे रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) लागू होने के तीन साल बाद भी दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का अपेक्षित स्तर कम नहीं होना चिंताजनक है। तीन वर्ष से किए जा रहे प्रयास के बावजूद दिल्ली में कमोबेश हर नागरिक प्रदूषित हवा में ही सांस लेने को मजबूर है। ऐसा नहीं है कि प्रदूषण से निपटने के लिए योजनाएं नहीं हैं। योजनाएं बहुत हैं, लेकिन गंभीरता से इन पर अमल नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि बीते कुछ सालों में विभिन्न वजहों से दिल्ली के प्रदूषण में कुछ कमी आई है।
दरअसल प्रदूषण से जंग में ईमानदारी और गंभीरता दोनों अनिवार्य हैं। सरकारी सक्रियता भी बहुत मायने रखती है। केंद्र सरकार कार्य योजना तैयार करती है, जबकि उन पर अमल करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण बढ़ने की वजह ग्रेप के क्रियान्वयन में हीलाहवाली है। डीजल जेनरेटर पर प्रतिबंध सुनिश्चित करने को लेकर हर साल हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान सरकार हाथ खड़े कर देती है। इसके साथ ही हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान सरकार में से कोई एनसीआर की बिगड़ती आबोहवा को लेकर गंभीर नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि नवंबर 2016 से लेकर कुछ दिन पहले तक पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण यानी ईपीसीए ने अनगिनत बैठकें कीं, लेकिन दिल्ली को छोड़ कोई भी राज्य अपने यहां की आबोहवा में सुधार नहीं कर पाया है। यहां तक कि बेहतर ढंग से वायु प्रदूषण की निगरानी तक नहीं हो पा रही है।
क्षेत्रीय वाहन भी राजधानी के प्रदूषण में अहम रोल अदा करता है। मसलन, दिल्ली में सार्वजनिक वाहन सिर्फ सीएनजी से ही चल सकते हैं, लेकिन दूसरे राज्यों के डीजल वाहन भी यहां धड़ल्ले से दौड़ते रहते हैं। ग्रेप के पालन में सख्ती का अभाव हमेशा खटकता रहा है। सख्ती न होने के कारण ही विभिन्न राज्यों में सामंजस्य नहीं रहता। नतीजा, हर साल लोगों को प्रदूषण का सामना करना पड़ता है। विडंबना यह कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की पेट्रोलिंग टीमें विभिन्न इलाकों का दौरा कर जो रिपोर्ट तैयार करती हैं, उसे कार्रवाई के लिए प्रदूषण बोर्ड को भेज दी जाती है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इस रिपोर्ट को नगर निगमों के पास अग्रसारित कर देता है, जबकि नगर निगम की ओर से न तो उस पर कार्रवाई होती है, और न ही वापस जवाब भेजा जाता है।

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