नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब उच्च न्यायालय याचिका खारिज या निस्तारित कर रहे हैं तो ऐसी अवस्था में आरोपी को संरक्षण देने का क्या मतलब है। अदालत ने निर्देश दिया है कि उच्च न्यायालय ऐसा न करें। जब याचिका ही बेकार पाई गई है तो उस पर गिरफ्तारी या जांच के दौरान या जांच पूरी होने तक दंडात्मक कार्रवाई से सरंक्षण या जांच पर रोक या फाइनल रिपोर्ट/चार्जशीट दायर होने तक संरक्षण नही दें। शीर्ष अदालत का उच्च न्यायालयों को यह निर्देश देना महत्वूपर्ण है, क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि उच्च न्यायालय से जांच पर स्टे लगवाने के बाद मामला बरसों के लिए लटक जाता है। कई बार फाइलें ही अदालत से गुम करवा दी जाती हैं। ऐसे ही एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने 7 वर्ष पूर्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय से ऐसे मामलों की जानकारी मांगी थी जिसमें धारा 482 के तहत संज्ञेय अपराधों की जांच पर अंतरिम रोक लगाई गई थी और उसके बाद वे सुनवाई पर ही नहीं आए। न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने यह आदेश बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ दायर एक अपील पर दिया।
इस मामले में उच्च न्यायालय ने धोखाधड़ी के मामले में अभियुक्तों पर दंडात्मक कार्रवाई करने पर रोक लगा दी थी। पीठ ने कहा कि हम उच्च न्यायालयों को आगाह करते हैं कि अनुच्छेद- 226 तथा सीआरपीसी की धारा- 482 के तहत दायर याचिकाओं का निपटारा करते हुए आपराधिक मामलों में संरक्षण न दें। पीठ ने आदेश में कहा, जब जांच प्रगति में होती है तो तथ्य काफी धुंधले होते हैं और पूरे तथ्य उच्च न्यायालय के सामने नहीं होते, ऐसे में उच्च न्यायालय को अंतरिम निषेधात्मक आदेश पारित करने से बचना चाहिए। ऐसा करके उच्च न्यायालय संज्ञेय अपराधों में जांच को बाधित कर देते हैं। कोर्ट ने कहा कि पुलिस का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह संज्ञेय अपराधों में पूर्ण जांच करे। आपराधिक मामलों में जांच को शुरुआत में ही कुचल देना ठीक नहीं है। अदालत ने कहा कि पुलिस और न्यायपालिका के कार्य एक-दूसरे के पूरक हैं ये एक दूसरे के कामों में ओवरलैपिंग नहीं करते। बेहतर हो कि संरक्षण देने के बजाए आरोपी को धारा- 438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए कहना चाहिए। पीठ ने इस मामले में विस्तृत दिशा-निर्देश पारित किए और उच्च न्यायालयों से कहा कि इनका पालन करें।