मदरलैंड संवाददाता, भैरोगंज
हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बांस का बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसलिए हम इसे ‘गरीबों का टिम्बर’ भी कहते हैं। प्रकृति और पर्यावरण के लिये बांस वरदान है। जिसका उपयोग आयुर्वेदिक दवाओं को बनाए जाने से लेकर दैनिक उपयोगी वस्तुओं को बनाने में किया जाता है ।लेकिन सरकारी प्रोत्साहन के आभाव में इसकी खेती से किसान मुँह मोड़ने लगे हैं।
यह बढती मानव आबादी व लगातार दोहन के कारण प्राकृतिक रूप से नष्ट होता जा रहा है। एक समय था कि प्रत्येक गांव में कई तरह के बांसों की झाड़ियां होती थीं। बांस के लगभग सैकडों उपयोग लिखित रूप से दर्ज हैं। परंतु आज इनके सीमित व बुनियादी जरूरतों वाले मुख्य उपयोग बचे हुये हैं। जैसे ग्रामीण अपना घर बनाने में, कृषि यंत्र बनाने के अलावा रोजमर्रा की जिंदगी में विभिन्न प्रकार से बांस को उपयोग में लाते हैं। कभी बांस के बने हैंडीक्राफ्ट (हाथ से बने) की चीजों का व्यापार कुटीर उद्योग की शक्ल में था। परंतु सरकारी आवास योजना से लेकर अब धरती के लिये जहर जैसा प्रभाव वाले प्लास्टिक की चीजों के प्रचलन में आने के बाद ये छोटा परंतु पर्यावरण के लिये उत्तम उद्योग चौपट हो चुका है।
कभी इस क्षेत्र में मशहूर व शानो शौकत कि पहचान बनती वे ‘झखरा’ बांस की लाठियां नहीं दिखतीं। जो उपर से नीचे तक विभिन्न रंगों, रेखाचित्रों एंव नक्काशियों से भरी होती थी। उन लाठियों के दोनों सिरे तांबे, पीतल अथवा लोहे के पत्तरों से जड़े गये होते थे। ये कभी इस क्षेत्र की पहचान थी।
साल 2006-07 में केंद्र सरकार की सहायता से राष्ट्रीय बांस मिशन की शुरूआत की गई थी। इस मिशन के तहत बांस की खेती के इच्छुक किसानों को इसके लिए प्रशिक्षण देने से लेकर खेती करने के गुर सिखाने को लेकर गांव तक जाने की योजना बनाई थी। योजना के तहत खेती करने वाले किसानों को सरकार से मिलने वाली अनुदान राशि भी मुहैया कराये जाने पर भी सहमति थी। राष्ट्रीय बांस मिशन योजना में पश्चिमी चंपारण के अलावा पूर्णिया, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, कटिहार, किशनगंज, सीतामढ़ी, मुंगेर, बांका, जमुई, नालंदा, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, व शिवहर शामिल थे ।
इस संदर्भ पर्यावरण प्रेमी सुधांशू कुमार सिंह बताते हैं के बांस की विस्तारित जड़े मिट्टी की मृदा अपदरण को रोकती है । इनकी जड़े नदी या तटबंधों के किनारों की मिट्टी को भू-स्खलन से बचाते हैं। इनको ऊसर और कम उपजाऊ जमीन में आसानी से लगाया जा सकता है,और सबसे बड़ी बात है की अन्य वनस्पतियों के मुकाबले ये तीस प्रतिशत अधिक ऑक्सिजन उत्सर्जन करता है तथा साथ ही सूर्य की पराबैंगनी किरणों को रोकता है। इसतरह पर्यावरण सहित आर्थिक तौर पर बांस बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण यह विलुप्ति की तरफ जा रहा है।
इस संदर्भ में बगहा प्रखंड एक अंतर्गत बांसगांव मझरिया पंचायत के परसौनी गाँव के किसान हरेन्द्र लाल शर्मा, भूपत सिंह,राजेश्वर सिंह, मोहन लाल शर्मा आदि बाँस की खेती से मुँह मोड़ने लगे है। उनका कहना है के अब इसकी खेती में पहले की तरह फायदा नही है,ना ही किसी तरह की सरकारी मदद मिल रही है। तोनवा,मदरहनी, परसौनी,भोलापुर आदि गांवों के कृषकों के कई एकड़ में फैले बांस के बागीचे अब सिमटने लगे है।सरकार कि इच्छा शक्ति पर यह निर्भर है कि ग्रामसभा व अन्य परती जमीनों में विदेशी व हमारे पर्यावरण के लिये नुकसान दायक यूकेलिप्टस, पोपुलर आदि के स्थान पर बांस उत्पादन के लिये किसानों को प्रोत्साहित करें। पर्यावरण के लिये नुकसानदायक प्लास्टिक के बने चीजों पर पाबंदी लगाकर, किसानों के रेवेन्यू बढाने वाले तथा पर्यावरण मित्र इस पौधे को लगाने के लिये हरसंभव कोशिश करे।