नई दिल्ली। 9/11 के हमले ने आतंकवाद की परिभाषा ही बदल दी थी। पहले जब भी भारत आतंकवाद की बात अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने की कोशिश करता, तो विश्व समुदाय उसे भारत-पाकिस्तान दुश्मनी के नजरिए से देखा करता था। 9/11 की घटना के बाद विश्व समुदाय ने भारत की बात को गंभीरता से सुनना शुरू किया। अफगानिस्तान की सत्ता पर आज जब हिंसा की दम पर तालिबान ने कब्जा जमा लिया है, तो दो दशक पहले न्यूयॉर्क में हुए 9/11 अटैक के पीछे के वास्तविक मंसूबों को समझा जा सकता है। हैरत की बात यह है कि दुनिया के अधिकांश प्रमुख देश अब भी इस खतरे के प्रति गंभीर नहीं हैं। वे अपने, तुलनात्मक रूप से, छोटे-छोटे हित साधने के लिए मानवता के लिए एक बहुत बड़े खतरे को नजरअंदाज कर रहे हैं। अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार के स्थान पर तालिबान की ताजपोशी, सिद्धांतरूप में एक भयावह स्थिति है। इस पर अगर आज विचार किया जाए तो स्थिति अब भी नियंत्रित की जा सकती है।
9/11 की घटना आधुनिक विश्व इतिहास की प्रमुख घटना है
और इसने आतंकवाद की परिभाषा ही बदल दी, कई देशों की किस्मत ने अलग मोड़ ले लिया और कुछ ने विदेशी नीति बदल डाली है। दुनिया के कई हिस्सों का मानचित्र बदल गया। भारत पर भी इसका असर पड़ा। उस हमले की गूंज रह-रहकर भारत की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा नीतियों में गूंजती रही है। 9/11 का जिम्मेदार अल कायदा था मगर उसने पाकिस्तान को रणनीति का नया ब्लू प्रिंट दे दिया। इसके बाद पाकिस्तान
की धरती से आतंकवादी समूहों की ऐसी पौध पनपने लगी जिसने आने वाले सालों में भारत को लगातार बहुत नुकसान पहुंचाया। उसने जम्मू और कश्मीर विधानसभा पर अक्टूबर 2001 में हमला कराया, मगर अगले महीने दुस्साहस की सीमा तब पार कर दी गई, जब जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने संसद भवन पर हमला कर दिया। भारत ने ‘ऑपरेशन पराक्रम’ से इसका जवाब दिया। पाकिस्तान सीमा पर हजारों सैनिकों की तैनाती कर दी। पाकिस्तान को आनन-फानन में अफगान सीमा से हटाकर भारतीय सीमा पर फौज तैनाती करनी पड़ी। अगले छह महीने दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर रहा।
अमेरिका ने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता की जिसका नतीजा जून 2002 में दिखा जब जनरल परवेज मुशर्रफ सीमापार से आतंकियों की घुसपैठ रोकने को तैयार हो गए। संघर्ष विराम की यही शर्त रखी गई थी। 9/11 के बाद से ग्लोबल सिक्योरिटी को लेकर बातचीत में जबर्दस्त बदलाव आया। भारत इससे अछूता नहीं था। दुनिया अब भारत को ‘संयम’ का पाठ पढ़ाना छोड़ चुकी थी। बुश प्रशासन ने इस्लामाबाद से साफ कह दिया कि भारत आतंकवाद के खिलाफ जवाब देने के अपने अधिकार के भीतर है। अब भारत की लड़ाई पर ब्रेक केवल संसाधनों की कमी और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से लग सकता था, अंतरराष्ट्रीय दबाव में नहीं।
अब तक आतंकवाद की भारतीय परिभाषा को ‘पाकिस्तान-भारत की दुश्मनी’ के नजरिए से देखना बंद हो गया था। भारत को आतंकवाद के खिलाफ दुनिया की लड़ाई में साझीदार मान लिया गया। हमने कोलकाता के अमेरिकन सेंटर पर आतंकी हमला देखा, गांधीनगर के अक्षरधाम मंदिर, मुंबई (2002-03), दिल्ली (2005), आईआईएससी बेंगलुरू(2005), वाराणसी (2006) में भी हमले हुए। फिर मुंबई, दिल्ली, जयपुर, लखनऊ और बेंगलुरू में योजनाबद्ध ढंग से बम धमाकों को अंजाम दिया गया। फिर नवंबर 2008 में भारत ने 9/11 जैसा आतंकी हमला झेला। तब मुंबई में कई जगहों पर लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने जमकर खूब बहाया।
2014 के बाद हमलों में और तेजी आई। आतंकियों ने सुरक्षा बलों और रक्षा प्रतिष्ठानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान की योजना भारत के भीतर ही आतंकी तैयार करने की थी। आतंकियों के बीच यह सोच बैठा दी गई कि सुरक्षा बलों पर हमला आतंकी कृत्य नहीं है। 9/11 के करीब एक दशक बाद भारत ने सीमापार के आतंकवाद का कड़ाई से जवाब देना शुरू किया। भारत ने आतंकवाद से मुकाबले की रणनीति को बदलते हुए 2015 के बाद से पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों से लड़ना शुरू किया।