नई दिल्ली। 14 फरवरी का दिन क्रिकेट इतिहास के सबसे खास दिनों में से है। पिछले 18 सालों से हर साल ये दिन एक ऐसी उपलब्धि के लिए याद किया जाता है, जो क्रिकेट के लगभग डेढ़ सौ साल के इतिहास में न पहले कभी हुई थी और न अभी तक दोबारा किसी को नसीब हुई है। आज से 18 साल पहले 14 फरवरी 2003 को द.अफ्रीका के पीटरमैरिट्जबर्ग में दोपहर का वक्त एक करिश्मे का गवाह बना। उस स्टेडियम में पहली बार कोई अंतरराष्ट्रीय मैच होने जा रहा था और मौका था वर्ल्ड कप के मैच का। इतने बड़े टूर्नामेंट के लिए एक ऐसा स्टेडियम, जिसमें पहले कभी कोई मैच नहीं हुआ था। हैरानी जरूर हो सकती है, लेकिन इतिहास कहीं भी बन सकते हैं।

श्रीलंका और बांग्लादेश की टीमें

14 फरवरी 2003 को श्रीलंका और बांग्लादेश की टीमें आमने-सामने थीं। श्रीलंका के कप्तान सनथ जयसूर्या ने टॉस जीतकर पहले गेंदबाजी का फैसला किया और पहले ओवर में ही उनका फैसला सही हो गया। श्रीलंका के हाथ में पहले ही ओवर में मैच आ गया और इतिहास बन गया। श्रीलंका के महानतम तेज गेंदबाज चमिंडा वास ने मैच की पहली 3 गेंदों में ही हैट्रिक जमा दी। वास ने हन्नान सरकार, मोहम्मद अशरफुल और एहसानुल हक को खाता खोले बिना पवेलियन लौटा दिया। क्रिकेट इतिहास में आजतक ऐसा कारनामा उससे पहले कभी नहीं हुआ था।

पांचवीं गेंद पर चौथा विकेट भी

क्रिकेट के किसी भी फॉर्मेट में पहले ही ओवर की पहली 3 गेंदों में हैट्रिक का कमाल आज तक नहीं हो पाया है। चमिंडा वास यहीं नहीं रुके, उन्होंने इस ओवर की पांचवीं गेंद पर चौथा विकेट भी झटक लिया। मैच में उन्होंने 9.1 ओवरों में 25 रन देकर 6 विकेट अपने नाम किए। इसके साथ ही वह उन चुनिंदा गेंदबाजों में शामिल हो गए, जिनके नाम वनडे क्रिकेट में 2 हैट्रिक हैं। 8 दिसंबर 2001 को कोलंबो में वास ने जिम्बाब्वे के खिलाफ मैच की पहली ही गेंद पर विकेट झटककर एक के बाद एक लगातार 8 ओवर गेंदबाजी करते हुए सिर्फ 19 रन देकर 8 विकेट अपने नाम कर डाले। इसमें से एक हैट्रिक भी शामिल थी। वनडे क्रिकेट के इतिहास में ये सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है।

तब वहां कभी भी ये करिश्मे नहीं कर

हालांकि, अगर वास के बचपन का सपना पूरा हो जाता, तब वहां कभी भी ये करिश्मे नहीं कर पाते। वास श्रीलंका के एक कैथलिक परिवार में पैदा हुए थे। क्रिकेट में खुद को समर्पित करने से पहले वास के बचपन का सपना चर्च का पादरी बनने का था। एक इंटरव्यू में वास ने बताया भी था कि वह पादरी बनने को लेकर काफी गंभीर थे, लेकिन उसके लिए 12 से 14 साल तक की कड़ी पढ़ाई जरूरी थी और इस सबके बीच क्रिकेट का जादू उन पर चलने लगा।

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