मदरलैंड संवाददाता,
जदयू के विधायक और बिहार विधानसभा के अनुसूचित जाति जनजाति कल्याण समिति के सभापति ललन पासवान ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अनुसूचित जाति जनजाति के आरक्षण पर दिए फैसले को आश्चर्यजनक और दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उन्होंने कहा है कि भारत के इस पवित्र लोकतंत्र में भारत का संविधान बड़ा है कि न्यायपालिका। उन्होंने कहा कि भारत के प्रधानमंत्री को भी स्पष्ट करना चाहिए कि भारतीय संविधान के अंदर न्यायपालिका है या न्यायपालिका के अंदर संविधान। पिछले दिनों इसी तरह एससी/ एसटी एक्ट पर फैसले आए थे जिसे लोकसभा में संशोधन बिल लाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि 1947 से लेकर आज तक मात्र 6% आरक्षण का लाभ दलितों को मिला है। विधायिका में सांसद, विधायक एवं तथाकथित दलित नेताओं व मात्र 6% केंद्रीय सेवा के नौकरियों में आने से 30 करोड़ दलितों के गैर बराबरी अभी तक खत्म नहीं हुई है। देश के 70 करोड़ गरीब दलित शोषित मजलूम लोग आज भी ₹20 की दैनिक मजदूरी पर अपना पेट पालते हैं। आज भी मुसहरी में पेट भरने के लिए झाड़ू और बढ़नी की प्रथा खत्म नहीं हुई है। शिक्षा के मामले में आजादी के 72 साल बीतने के बाद भी बिहार में दलित महिलाओं का साक्षरता दर 14% और पुरुषों का 21% है। इस तरह शत-प्रतिशत साक्षरता के लिए महिलाओं को 300 साल तथा पुरुषों को 200 साल इंतजार करना पड़ेगा।
उन्होंने कहा की विधायिका की परिभाषा तो पहले ही परिभाषित है। विधायिका सर्वोपरि है लेकिन इसके बावजूद न्यायपालिका द्वारा अनुसूचित जाति जनजाति के आरक्षण पर विवादित फैसले सुना कर देश में विद्रोह कराने की कोशिश की जा रही है। ललन पासवान ने कहा कि 2 अप्रैल 2018 को पूरे देश में दलितों के आक्रोश को देखने के बावजूद दलितों के आरक्षण पर तलवार चढ़ाना न्यायपालिका का यह निर्णय न्याय संगत नहीं है। बाबा साहब अंबेडकर ने 10 वर्षों के लिए आरक्षण संविधान में लागू किया था। आज 72 वर्षों में सत्ता शीर्ष पर आसीन रहे सभी दलों के नेताओं ने आरक्षण को पूरा करके दलितों की आर्थिक स्थिति और सामाजिक विषमता को क्यों नहीं खत्म किया। इसके लिए जिम्मेदार कौन है?